फुलेरा और आमेर के बीच स्थित नरैना एक छोटा रेलवे स्टेशन है । यह जयपुर से 80 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है । यह शाकम्भरी(सांभर) क्षेत्र का एक प्राचीन कस्बा है । साहित्यिक ग्रन्थों और शिलालेखों में इसके विविध नाम मिलते हैं यथा नरानयन, नरना, नरनका, नराण, नरपुर, नारायणपुर इत्यादि । 11वीं-12वीं शताब्दी ई. में यह अपने वैभव और समृद्धि के शिखर पर था । अजमेर की स्थापना से पहले दीर्घकाल तक चौहान शासकों की राजधानी सांभर रही, अतः चौहानकाल में नरायणा का विशेष सामरिक महत्व था । इसलिए इस कस्बे को अनेक बार आक्रान्ताओं का कोप भाजन बनना पड़ा, जिससे यह कई बार उजड़ा, और वापस आबाद हुआ । महमूद गजनबी ने भी नरायणा पर आक्रमण किया तथा सांभर के चौहान राजा गोविन्दराज तृतीय को हराकर मंदिरों और मूर्तियों को ध्वस्त कर दिया । इस विनाश लीला की पुष्टि समकालीन फारसी इतिहास लेखक अलबरुनी के यात्रा विवरण से होती है जिसने नरायणा को एक विरान और खण्डहरों का नगर बताते हुए यहां के निवासियों द्वारा अन्यत्र पलायन करने का उल्लेख लिया है । कुछ वर्षों के बाद नरायणा पर चौहानों ने फिर से अपना अधिकार स्थापित कर लिया । इसी वंश के शासक चामुण्डराज द्वारा नरपुर में विष्णु मंदिर का निर्माण कराए जाने का जयानक विरचित ‘पृथ्वीराज विजय’ में उल्लेख हुआ है । चौहानों की राजधानी सांभर से अजमेर चले जाने के बाद भी नरायणा का महत्व कम नहीं हुआ । प्रसिद्ध चौहान शासक पृथ्वीराज तृतीय ने ई. 1182 में नरायणा में सैनिक शिविर लगाया ।
मुहम्मद गौरी द्वारा तराईन के दूसरे युद्ध में (1192 ई.) पृथ्वीराज चौहान (तृतीय ) को पराजित किये जाने के बाद नरायणा दिल्ली के सुल्तानों के अधिकार में चला गया । 1338 ई. में फिरोज तुगलक की मृत्यु के बाद दिल्ली का मुस्लिम राज्य बिखरने लगा । थोड़े समय तक नरायणा पर मेवाड़ के महाराणा मोकल का भी अधिकार रहा । इसके बाद नागौर के शासक फिरोजखान के भाई मुजाहिद खान ने नरायणा, सांभर और डीडवाना के भू-भाग पर अधिकार कर लिया । मुजाहिद खान ने नरायणा के गौरीशंकर तालाब के प्रवेश द्वार पर अपने शिलालेख उत्कीर्ण करवाए जो आज भी विध्यमान हैं । फारसी में उत्कीर्ण 1437 ई. के इन शिलालेखों से पता चलता है कि मुजाहिद खान ने गौरीशंकर तालाब की मरम्मत करवाई तथा उसका नाम बदलकर ‘मुस्तफासर’ कर दिया । उसके शासनकाल में नरायणा में अनेक भव्य मंदिरों को तोड़कर उनकी सामग्री से जामा मस्जिद बनवाई गई । इस मस्जिद के विशाल कक्ष तथा प्रांगण में जो अलंकृत स्तम्भ लगे हैं वे हिन्दू स्थापत्य कला के उत्कृष्ट नमूने हैं । इसके पास ही भव्य त्रिपोलिया दरवाजा है जो वर्तमान में भग्न अवस्था में हैं, लेकिन अपने इस रूप में भी वह सुन्दर और आकर्षक लगता है । इसके पास ही खण्डित किन्तु अलंकृत पाषाण स्तम्भ जीर्ण अवस्था में पड़े हैं । 1439 ई. के राणपुर के एक शिलालेख के अनुसार महाराणा कुम्भा ने नरायणा पर अपना अधिकार स्थापित किया । राणा सांगा के शासनकाल में भी नरायणा का महत्व बना रहा । राणा सांगा ने नरायणा के किले की गणना दुर्भेद्य दुर्गों में की थी ।