Diggipuri ka Raja:
जयपुर से लगभग 78 किलोमीटर दक्षिण पूर्व में स्थित डिग्गी ‘डिग्गीपुरी के राजा श्रीकल्याणजी’ के मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि इंद्र के कोप से दण्डित होकर अप्सरा उर्वशी बारह वर्ष के लिए मृत्युलोक में आई। राजा डिग्गी उस पर मोहित हो गया। उर्वशी ने इस शर्त पर उसके साथ रहना स्वीकार किया कि राजा इंद्र के कोप से उसकी रक्षा करेगा, परन्तु वह उसकी रक्षा करने में असमर्थ रहा। अप्सरा ने उसे कुष्ठ रोगी होने का शाप दे दिया। इस पर रोगग्रस्त राजा ने भगवान विष्णु का स्मरण किया। भगवान ने कल्याणजी के रूप में प्रकट होकर राजा के कुष्ठ रोग को दूर किया। तभी से ‘डिग्गीपुरी के राजा’ दीन-दुखियों को कष्टों से छुटकारा दिलवाने वाले लोक देवता के रूप में पूज्य हो गए।
डिग्गी का गढ़ भव्य और दर्शनीय है। पहले डिग्गी परकोटे के भीतर बसा हुआ था। उसकी सुदृढ़ प्राचीर व बुर्जे इसके विगत वैभव की याद दिलाती है। कल्याण दरवाजा, धौली दरवाजा और मालपुरा दरवाजा इसके बड़े प्रवेश द्वार हैं। एक छोटा प्रवेश द्वार चांदसेन की खिड़की कहलाता है। ये सभी प्रवेशद्वार भग्न रूप में आज भी विद्यमान हैं। डिग्गी के राजप्रासाद के भीतर बड़ा महल (जहाँ दरबार लगता था), अमर निवास, रनिवास, सिलहखाना, माताजी का मंदिर, विशाल कुआं आदि उल्लेखनीय हैं। अमर निवास से जनाने महलों तक एक बड़ी सुरंग बनी है। गढ़ के प्रवेशद्वार पर सीतारामजी का मंदिर, सामने नटवरजी का मंदिर, हाथी का ठाण, अश्वशाला, रथखाना, अन्न भंडार इत्यादि हैं। गढ़ की प्राचीर में चार विशाल बुर्जे बनी हैं जिनमें से बायीं तरफ की बुर्ज का उपयोग कैदियों को रखने के लिए जेल के रूप में किया जाता था। डिग्गी के ठाकुर जगतसिंह की राजकुमारी रतनकुंवरी ने यहां सीतारामजी के मंदिर का निर्माण करवाया। इन्ही ठाकुर जगतसिंह की रानी ऊदावतजी ने डिग्गी में गोपीनाथजी का तथा उनकी मेड़तणी रानी ने वृन्दावन में एक भव्य मंदिर का निर्माण करवाया। डिग्गी की एक भग्न बावड़ी भी किसी राजमहर्षि द्वारा निर्मित है। पहले डिग्गी कछवाहों की नरूका शाखा के अधीन था किन्तु बाद में खंगारोत हरिसिंह ने छीन लिया तब से यह खंगरोटोम के अधीन हो गया। हरिसिंह ने डिग्गी की जागीर अपने छोटे भाई विजयसिंह को दे दी।
डिग्गी से महाराणा संग्राम सिंह की मृत्यु के विषय में एक शिलालेख प्राप्त हुआ है। काले पत्थर का यह शिलालेख डिग्गी के दुर्ग के बाहर सीतारामजी के मंदिर के पास स्थापित है। इस शिलालेख की तिथि विक्रम संवत 1584 जेठ बदी 13 दी गई है। इस शिलालेख के अनुसार खानवा के युद्ध में घायल होने के बाद सांगा तीन माह तक जीवित रहा। तथा मरने से पहले उसने अनेक दान-पुण्य किये। डिग्गी में उपलब्ध दूसरा शिलालेख विक्रम संवत् 1802 का है जिसमें यहाँ के ठाकुर मेघसिंह की मृत्यु के अनन्तर उनकी रानी मसूदा की जगमालोतजी के महाप्रयाण का उल्लेख है। यह शिलालेख विशाल तालाब के किनारे उनके स्मारक पर स्थापित शिलाखंड पर उत्कीर्ण है। डिग्गी के गढ़ के प्रवेशद्वार पर भी रानी जगमालोतजी के हाथ की छाप विद्यमान है। वैशाख मास की पूर्णिमा तथा भाद्रपद एकादशी को डिग्गी में कल्याणजी का विशाल मेला भरता है। परिक्रमा और पदयात्राएं आयोजित की जाती है। श्रद्धालु कल्याणजी को स्मरण कर यह लोकगीत गाते हैं –
थारे बाजे नौबत बाजा ।
म्हारा डिग्गीपुरी का राजा ॥
डिग्गी का गढ़ भव्य और दर्शनीय है। पहले डिग्गी परकोटे के भीतर बसा हुआ था। उसकी सुदृढ़ प्राचीर व बुर्जे इसके विगत वैभव की याद दिलाती है। कल्याण दरवाजा, धौली दरवाजा और मालपुरा दरवाजा इसके बड़े प्रवेश द्वार हैं। एक छोटा प्रवेश द्वार चांदसेन की खिड़की कहलाता है। ये सभी प्रवेशद्वार भग्न रूप में आज भी विद्यमान हैं। डिग्गी के राजप्रासाद के भीतर बड़ा महल (जहाँ दरबार लगता था), अमर निवास, रनिवास, सिलहखाना, माताजी का मंदिर, विशाल कुआं आदि उल्लेखनीय हैं। अमर निवास से जनाने महलों तक एक बड़ी सुरंग बनी है। गढ़ के प्रवेशद्वार पर सीतारामजी का मंदिर, सामने नटवरजी का मंदिर, हाथी का ठाण, अश्वशाला, रथखाना, अन्न भंडार इत्यादि हैं। गढ़ की प्राचीर में चार विशाल बुर्जे बनी हैं जिनमें से बायीं तरफ की बुर्ज का उपयोग कैदियों को रखने के लिए जेल के रूप में किया जाता था। डिग्गी के ठाकुर जगतसिंह की राजकुमारी रतनकुंवरी ने यहां सीतारामजी के मंदिर का निर्माण करवाया। इन्ही ठाकुर जगतसिंह की रानी ऊदावतजी ने डिग्गी में गोपीनाथजी का तथा उनकी मेड़तणी रानी ने वृन्दावन में एक भव्य मंदिर का निर्माण करवाया। डिग्गी की एक भग्न बावड़ी भी किसी राजमहर्षि द्वारा निर्मित है। पहले डिग्गी कछवाहों की नरूका शाखा के अधीन था किन्तु बाद में खंगारोत हरिसिंह ने छीन लिया तब से यह खंगरोटोम के अधीन हो गया। हरिसिंह ने डिग्गी की जागीर अपने छोटे भाई विजयसिंह को दे दी।
डिग्गी से महाराणा संग्राम सिंह की मृत्यु के विषय में एक शिलालेख प्राप्त हुआ है। काले पत्थर का यह शिलालेख डिग्गी के दुर्ग के बाहर सीतारामजी के मंदिर के पास स्थापित है। इस शिलालेख की तिथि विक्रम संवत 1584 जेठ बदी 13 दी गई है। इस शिलालेख के अनुसार खानवा के युद्ध में घायल होने के बाद सांगा तीन माह तक जीवित रहा। तथा मरने से पहले उसने अनेक दान-पुण्य किये। डिग्गी में उपलब्ध दूसरा शिलालेख विक्रम संवत् 1802 का है जिसमें यहाँ के ठाकुर मेघसिंह की मृत्यु के अनन्तर उनकी रानी मसूदा की जगमालोतजी के महाप्रयाण का उल्लेख है। यह शिलालेख विशाल तालाब के किनारे उनके स्मारक पर स्थापित शिलाखंड पर उत्कीर्ण है। डिग्गी के गढ़ के प्रवेशद्वार पर भी रानी जगमालोतजी के हाथ की छाप विद्यमान है। वैशाख मास की पूर्णिमा तथा भाद्रपद एकादशी को डिग्गी में कल्याणजी का विशाल मेला भरता है। परिक्रमा और पदयात्राएं आयोजित की जाती है। श्रद्धालु कल्याणजी को स्मरण कर यह लोकगीत गाते हैं –
थारे बाजे नौबत बाजा ।
म्हारा डिग्गीपुरी का राजा ॥