चौमू जयपुर से 31 किलोमीटर दूर है तथा आमेर तहसील में स्थित है। यहां स्थित दुर्ग चौमुहागढ़ के नाम पर यह क़स्बा चौमू कहलाता है। इस दुर्ग की नींव राव करणसिंह नाथावत ने ई. 1595 में रखी। तब यहां सघन वन हुआ करता था। इस दुर्ग की भूमि का चयन बाबा वेणीदास माधव के निर्देश पर किया गया था। करणसिंह ने दुर्ग की प्राचीर, दोनों कोनों पर बुर्जे तथा कुछ महलों का निर्माण करवाया था। पीछे की प्राचीर नहीं बन पाई थी किन्तु सघन झाड़ियां ही प्राचीर का काम करती थीं। बाद में राव सुखसिंह, मोहनसिंह, और कृष्णसिंह ने दुर्ग को पूरा करवाया। मोहनसिंह ने दुर्ग के चारों ओर पक्की गहरी खाई का निर्माण करवाया। किले की प्राचीरेँ विशाल एवं दुर्भेद्य हैं। चारों कोनों पर चार विशाल बुर्ज हैं। प्राचीर की परिधि 3077 फुट, ऊंचाई 23 फुट और मोटाई 7 -15 फुट रखी गई है। इस प्राचीर को चारों ओर से घेरती हुई 35 फुट गहरी और 80 फुट चौड़ी खाई है जो सदैव जल से भरी रहती थी। खाई की कुल लम्बाई 5500 फुट है।
राव कृष्णसिंह ने ई. 1798 में चौमू नगर के चारों ओर पक्का परकोटा बनवाया। इसमें चार बड़े दरवाजे बावड़ी दरवाजा, पीयाला दरवाजा, होली दरवाजा तथा रावणा दरवाजा स्थित हैं। दुर्ग में प्रवेश के लिए ध्रुव पोल से होकर निकलना होता है। यह दरवाजा पश्चिम दिशा में स्थित है। इसका निर्माण राव कृष्णसिंह ने करवाया था। भीतर जाने पर गणेशपोल अत है जिसका निर्माण रघुनाथसिंह ने करवाया था। दुर्ग के भीतर शीश महल, देवी निवास, कृष्ण निवास, रतन निवास, मोती महल, तथा अन्य महलों का समूह है। इन महलों की सुंदरता देखते ही बनती है। इनकी दीवारों पर ढूंढाड़ शैली के भित्तिचित्र बने हैं। प्राचीर के साथ साथ कुएं बने हैं जिनसे नालियों द्वारा जल महलों तक पहुँचाया जाता था।
यह दुर्ग अकबर से लेकर औरंगजेब तक मुगलों की सेवा में रहा अतः उस काल में इस दुर्ग पर कोई आक्रमण नहीं हुआ। जब मुग़ल सत्ता कमजोर पड़ी तब यह दुर्ग मराठों और पिण्डारियों की चपेट में आ गया। समरू ने विशाल सेना के साथ इस दुर्ग पर आक्रमण किया लेकिन राव कृष्णसिंह ने उसका सामना किया। समरू पराजित हुआ और भाग गया। शाहपुरा के ई. 1812 में पठानों की सेना लेकर तोपों से इस दुर्ग पर हमला किया लेकिन दुर्ग का बाल भी बांका ना कर सका।
राव कृष्णसिंह ने ई. 1798 में चौमू नगर के चारों ओर पक्का परकोटा बनवाया। इसमें चार बड़े दरवाजे बावड़ी दरवाजा, पीयाला दरवाजा, होली दरवाजा तथा रावणा दरवाजा स्थित हैं। दुर्ग में प्रवेश के लिए ध्रुव पोल से होकर निकलना होता है। यह दरवाजा पश्चिम दिशा में स्थित है। इसका निर्माण राव कृष्णसिंह ने करवाया था। भीतर जाने पर गणेशपोल अत है जिसका निर्माण रघुनाथसिंह ने करवाया था। दुर्ग के भीतर शीश महल, देवी निवास, कृष्ण निवास, रतन निवास, मोती महल, तथा अन्य महलों का समूह है। इन महलों की सुंदरता देखते ही बनती है। इनकी दीवारों पर ढूंढाड़ शैली के भित्तिचित्र बने हैं। प्राचीर के साथ साथ कुएं बने हैं जिनसे नालियों द्वारा जल महलों तक पहुँचाया जाता था।
यह दुर्ग अकबर से लेकर औरंगजेब तक मुगलों की सेवा में रहा अतः उस काल में इस दुर्ग पर कोई आक्रमण नहीं हुआ। जब मुग़ल सत्ता कमजोर पड़ी तब यह दुर्ग मराठों और पिण्डारियों की चपेट में आ गया। समरू ने विशाल सेना के साथ इस दुर्ग पर आक्रमण किया लेकिन राव कृष्णसिंह ने उसका सामना किया। समरू पराजित हुआ और भाग गया। शाहपुरा के ई. 1812 में पठानों की सेना लेकर तोपों से इस दुर्ग पर हमला किया लेकिन दुर्ग का बाल भी बांका ना कर सका।