Bithoor, Kanpur (Uttar Praddesh) : अगर आपने भारत का इतिहास पढ़ा है तो 1857 की क्रांति से जुड़ा ये नाम बिठूर” जरूर सुना होगा। उत्तर प्रदेश में कानपुर के पास स्थित ये प्राचीन नगर ना केवल ऐतिहासिक बल्कि पौराणिक दृष्टि से भी बहुत खास है।
ऐतिहासिक महत्त्व | Historical Significance
जो लोग इतिहास में रुचि रखते हैं उनके लिए ये नाना साहब और तात्या टोपे की धरती है।
ये वो धरती है जहाँ झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई का बचपन बीता। ये वो धरती है जहाँ की गहराई में दफ़न है सैंकड़ों स्त्रियों का अस्मिता की रक्षार्थ दिया गया बलिदान। ये वो धरती है जिसकी मिट्टी आज भी इन रणबांकुरों की शौर्यगाथा सुनाती है।
पौराणिक महत्त्व | Mythological Significance
जो लोग पुराणों में रुचि रखते हैं उनके लिए ये आज भी वो ब्रह्मावर्त है जहाँ ब्रह्मा ने सृष्टिरचना करने से पूर्व तपस्या की थी, ये वही पावन भूमि है जहाँ बालक ध्रुव ने भगवान् नारायण को प्रसन्न करने के लिए एक पैर पर खड़े होकर कठोर तप किया था। और यही वो स्थान है जहाँ महर्षि वाल्मीकि ने महाकाव्य रामायण की रचना की।
बिठूर के दर्शनीय स्थान | Visiting Places in Bithoor
1. नानाराव पेशवा स्मारक (Nanarao Peshwa Smarak Bithoor)
सबसे पहले हम चलते हैं यहाँ स्थित नानाराव पेशवा स्मारक में। वह स्थान जहाँ की मिट्टी में खेलकर नन्ही सी छबीली बन गई थी वीरांगना लक्ष्मीबाई।
यहाँ प्रवेश करने के लिए मुख्य द्वार से पच्चीस रुपये की टिकट लेनी होती है। प्रवेश करने के बाद सबसे पहले दर्शन होते हैं रानी लक्ष्मीबाई की विशाल प्रतिमा के।
आगे बढ़ने पर अंदर एक और विशाल द्वार आता है। इस द्वार को पार करते ही बाईं ओर स्थित है यहाँ का म्यूजियम जिसमें संरक्षित प्राचीन अलंकृत ईंटें, स्तम्भों के अवशेष, प्रतिमाएं,हथियार, चित्र, सिक्के, नोट, शास्त्र, अख़बार, व अन्य वस्तुएं दर्शनीय है। यहीं दीवार पर रानी लक्ष्मीबाई का चित्र है उसके साथ ही एक और पेंटिंग है जो सती चौरा घाट के काण्ड को दर्शाती है। इस काण्ड में कानपुर के सती चौरा घाट पर क्रांतिकारियों ने सैंकड़ों अंग्रेजों को मौत के घाट उतार दिया था। इस घटना के बाद अंग्रेज बौखला गए और उन्होंने बिठूर पर आक्रमण कर यहाँ के नाना साहेब के महल को तहस नहस कर दिया था। भले ही यहाँ की वो दीवारें फिरंगियों ने नष्ट कर दी हों लेकिन यहाँ की मिट्टी आज भी वही है। । यही वो स्थान है जहाँ पर कभी नाना साहेब का महल हुआ करता था। रानी लक्ष्मीबाई ने अपना बचपन इसी जगह पर नाना साहेब के साथ बिताया था। उस समय बिठूर पर पेशवा बाजीराव द्वितीय का शासन था। उनका दत्तक पुत्र धोंदूपंत जो आगे चलकर नानाराव साहेब के नाम से विख्यात हुआ। उसकी मुंहबोली बहन थी।
झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई जिनके बचपन का नाम मणिकर्णिका था। उन्हें सब प्यार से मनु कहकर पुकारा करते थे। यहीं बिठूर में ही उन्होंने नानाराव के साथ घुड़सवारी, तीरंदाजी, बारूद बनाना और यु्द्ध करना सीखा था।
दोस्तों आपने सुभद्रा कुमारी चौहान की वह कविता तो सुनी होगी।
कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी, लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी, नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी, बरछी ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी।
नानाराव के सबसे विश्वासपात्र थे तात्या टोपे जो पेशवा बाजीराव द्वितीय के साथ ही बिठूर आये थे। बाद में नानाराव के पेशवा बनने पर वे उनके विश्वासपात्र बने। तात्या टोपे ने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में नानाराव और झाँसी की रानी का बहुत साथ दिया था।
यहाँ से आगे बढ़ने पर पार्क के बीच में नाना साहब की प्रतिमा स्थापित है। जहाँ लोगों द्वारा ली जाने वाली सेल्फी की आदत के कारण इसका नाम ही सेल्फी पॉइंट रख दिया गया है। यहाँ का विशाल पार्क तरह तरह के पेड़ पौधों और उनके बीच बनी पगडंडियों से तो रमणीय लगता ही है साथ ही यहाँ एक छोटीसी झील भी है जिसमें आप नौका विहार का आनंद उठा सकते हैं।
यहीं एक बड़ा मंच बना है जिस पर तरह तरह की चित्रकारी की गई है। इसके पीछे एक कुआँ स्थित है जहाँ रानी लक्ष्मीबाई के बचपन का सारंग नाम का प्रिय घोड़ा बांधा जाता था। सतीचौरा घाट के काण्ड के बाद भड़के अंग्रेजों के आक्रमण करने पर सैंकड़ों स्त्रियों ने इस कुए में कूदकर अपना बलिदान दिया था। इस कुए को शत शत नमन।
2.ब्रह्मावर्त घाट (Brahmavart Ghat)
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार पहले इस स्थान को उत्पलारण्य कहा जाता था। जब भगवान् विष्णु के नाभिकमल से ब्रह्माजी उत्पन्न हुए तो विंष्णुजी ने उन्हें मानवता की सृष्टि करने का आदेश दिया। तब ब्रह्माजी मानवसृजन के यज्ञ के लिए यहाँ आये और उपयुक्त स्थान की तलाश में यहाँ उन्होंने चक्कर लगाया। वनों से घिरा और माँ गंगा के किनारे का उत्पलारण्य नाम का यह स्थान उन्हें यज्ञ के लिए सर्वथा उपयुक्त लगा।
आवर्त का अर्थ होता है चक्कर लगाना। यानी जहाँ ब्रह्माजी ने चक्कर लगाया ऐसा यह स्थान कहलाने लगा, ब्रह्मावर्त।
ब्रह्मावर्त घाट को इसे बिठूर का सबसे पवित्र घाट माना जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार ब्रह्मा जी ने इसी स्थान पर यज्ञ किया था। जहाँ उनके यज्ञ से मनु और शतरूपा उत्पन्न हुए थे।
सनातन धर्म के अनुसार मनु संसार के प्रथम पुरुष थे। प्रथम मनु का नाम स्वयंभुव मनु था, जिनके साथ प्रथम स्त्री थी शतरूपा। इन्हीं प्रथम पुरुष और प्रथम स्त्री की सन्तानों से संसार के समस्त जनों की उत्पत्ति हुई। मनु की सन्तान होने के कारण वे सभी मानव या मनुष्य कहलाए। इस प्रकार मानवता की उद्गमस्थली है ये ब्रह्मावर्त घाट।
ब्रह्मावर्त घाट पर ब्रह्माजी की एक निशानी गड़ी है जिसे ब्रह्मा जी की खूँटी (Brahma ji ki Khoonti ) कहा जाता है। मान्यता है कि ब्रह्माजी ने यहाँ अपने द्वारा किये गए यज्ञ के स्थान पर प्रतीक स्वरुप यह खूँटी गाड़ दी थी।
ऐसे पावन स्थान पर प्रतिदिन सैंकड़ों भक्त आकर ब्रह्माजी की आराधना करते हैं। भगवान ब्रह्मा के अनुयायी गंगा नदी में स्नान करने बाद खडाऊ पहनकर यहां उनकी पूजा-अर्चना करते हैं। यह भी कहा जाता है कि भगवान ब्रह्मा ने यहां एक शिवलिंग स्थापित किया था, जिसे ब्रह्मेश्वर महादेव (Brahmeshwar Mahadev ) के नाम से जाना जाता है।
बिठूर में कुल 52 घाट हैं इन सभी में ब्रह्मावर्त घाट प्रमुख है। जब भी आप बिठूर आएं तो इस पावन स्थान पर गंगास्नान का पुण्यलाभ और नौकाविहार का आनंद जरूर लें।जो लोग शहरी शोर शराबे से उकता चुके होते हैं यहाँ का शांत वातावरण उन्हें बहुत रास आता है।
यह पावन स्थान इतना रमणीय और शांत है कि उस ब्रह्म का आप यहाँ आभास कर सकते हैं। यहाँ की शीतल हवाओं में आप उसे महसूस कर सकते हैं और गंगा की कलकल ध्वनि में उसे सुन सकते हैं।
3. पाथर घाट (Pathar Ghat)
ब्रह्मावर्त घाट के समीप ही स्थित है पाथर घाट। यह घाट लाल पत्थरों से बना है। अनोखी निर्माण कला के प्रतीक इस घाट की नींव अवध के मंत्री टिकैत राय ने डाली थी। घाट के निकट ही एक विशाल शिव मंदिर है, जहां कसौटी पत्थर से बना शिवलिंग स्थापित है।
4. लक्ष्मीबाई घाट (Lakshmibai Ghat )
लक्ष्मीबाई घाट। जैसा कि हमारी नाव के मांझी ने हमें बताया पहले यहाँ एक सुरंग हुआ करती थी जिसे अब बंद कर दिया गया है। ये सुरंग झाँसी,दिल्ली और ग्वालियर तक जाती थी। जो 1857 के संग्राम के समय नानाराव, तात्या टोपे, लक्ष्मीबाई आदि सेनानियों के द्वारा काम में ली जाती थी।
5. ध्रुव टीला | स्त्रियों के अखंड सौभाग्य से जुड़ा है धरती का ये स्थान। (Dhruv Teela Bithoor )
ध्रुव तारा। आसमान में स्थित सर्वाधिक चमकने वाला सितारा। जिससे जुड़ा है स्त्रियों का अखंड सौभाग्य । सदा सुहागन रहना तो हर स्त्री की चाहत होती है। मान्यता है कि ध्रुव का दर्शन करने से पति की अकाल मृत्यु नहीं होती और पत्नी अखंड सौभाग्यवती रहती है। इसीलिए विवाह के समय वर-वधु को ध्रुव तारे का दर्शन कराया जाता है। “ध्रुवं पश्यः”। लेकिन अखंड सौभाग्य देने वाले स्वयं ध्रुव का बचपन इतना भाग्यशाली नहीं था। आसमान में ध्रुव को ये प्रतिष्ठित स्थान भगवान् विष्णु ने उनकी कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर दिया था। नीचे दिए गए वीडियो में दर्शन कीजिये ध्रुव टीला (Dhruv Teela, Bithoor) के जहाँ ध्रुव ने तपस्या की थी।
दोस्तों ! हम हैं उत्तर प्रदेश की यात्रा पर और अभी हम हैं बिठूर में। यहाँ स्थित ये ध्रुव टीला वह स्थान है, जहां पांच साल के नन्हे बालक ध्रुव ने एक पैर पर खड़े होकर कठोर तपस्या की थी। और यहीं पर ध्रुव की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान नारायण ने उसे एक दैवीय तारे के रूप में सदैव चमकने का वरदान दिया था। माँ गंगा किनारे पर स्थित ये टीला बहुत ही रमणीय है।
ब्रह्मा के यज्ञ से उत्पन्न हुए स्वयम्भुव मनु के उत्पत्ति स्थान ब्रह्मावर्त घाट के दर्शन तो आपने पिछले वीडियो में किये थे उन्हीं स्वयम्भुव मनु के पुत्र उत्तानपाद से शुरू होती है बालक ध्रुव की कहानी।
राजा उत्तानपाद इस क्षेत्र के शासक थे जिनके दो रानियां थीं। बड़ी रानी का नाम सुनीति और छोटी रानी का नाम सुरुचि था। दोनों रानियों के एक-एक पुत्र थे। सुनीति का पुत्र था ध्रुव और सुरुचि के पुत्र का नाम था उत्तम। छोटी रानी सुरुचि बड़ी रानी और उसके पुत्र ध्रुव से घृणा करती थी क्योंकि आगे चलकर उसका सौतेला बेटा ध्रुव राजा बनता जबकि वह अपने पुत्र उत्तम के राज्याभिषेक के सपने देखती थी। इसलिए उसने सुनीति और ध्रुव को महल से निकलवा दिया। सुरुचि के रूप पर आसक्त राजा उत्तानपाद उसके इस कठोर निर्णय का विरोध भी ना कर सका। अपने पति को दुविधा में देख सुनीति अपने पुत्र ध्रुव को लेकर वन में चली गई।
जब ध्रुव पांच साल का हुआ तो एक एक बार वह अपने पिता से मिलने महल आया। राजा उत्तानपाद ने उसे स्नेहवश अपनी गोद में बिठाया तभी वहां सुरुचि आ गई और ध्रुव को अपने पति की गोद में बैठा देख क्रोधित हो गई। उसने कड़वी बातें बोलकर ध्रुव को उसके पिता की गोद से उतार दिया और कहा कि अगर राजा की गोद में बैठना है तो तुम्हें मेरी कोख से जन्म लेना होगा और उसे महल से भगा दिया।
नाराज और दुखी बालक ध्रुव अपनी माँ सुनीति के पास आया और उसे सारी बात बताई। तब सुनीति ने उसे समझाया कि अगर गोद में ही बैठना है तो पुत्र भगवान् नारायण की गोद में बैठो वे तो परम पिता हैं। तब पांच साल का नन्हा बालक ध्रुव निकल पड़ा तपस्या कर भगवान् नारायण को प्रसन्न करने के लिए। मार्ग में उसे नारदजी मिले। उन्होंने उसे बहुत समझाया कि हे सुकुमार तुम कोमल बालक हो। और तपस्या करना बहुत कठिन होता है। परन्तु ध्रुव ने उनकी एक ना सुनी और उनसे नारायण को प्रसन्न करने के लिए मंत्र मांगने लगा। अंततः बालहठ के सामने नारद जी झुक गए और उन्होंने उसे “ॐ नमो भगवते वासुदेवाय मंत्र” देकर कहा कि बारम्बार इसका उच्चारण करते रहो।
तब बालक ध्रुव गंगा नदी के किनारे स्थित इसी टीले पर आया और छह महीने तक कठोर तप करता रहा। समूचे ब्रह्माण्ड में यही मंत्र गूंजने लगा। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय। छह महीनों की तपस्या के बाद भगवान् नारायण ध्रुव के सामने प्रकट हुए और उससे वरदान मांगने को कहा। किन्तु नन्हे बालक ने इतना ही माँगा कि मैं अबोध बालक आपकी स्तुति करना भी नहीं जानता। कृपा कर मुझे वरदान दीजिये कि मैं आपका स्तुतिगान कर सकूँ।
ध्रुव की बात सुनकर भगवान विष्णु ने अपने दिव्य शंख से ध्रुव के दाहिने गाल को छुआ। और इससे ध्रुव की वाणी फूट पड़ी और उसने १२ छंदों में भगवान् विष्णु की स्तुति गाई जिसे ध्रुव स्तुति कहा जाता है। भगवान् विष्णु ध्रुव की इस निःस्वार्थ भक्ति से इतना प्रसन्न हुए कि उन्होंने उसे सितारा होने का प्रतिष्ठित पद दिया और वरदान दिया कि मृत्युलोक में राज भोगने के बाद तुम दैवीय सितारा पद को प्राप्त करोगे और जैसे तुम अपनी तपस्या में स्थिर रहे वैसे ही तुम सदा स्थिर रहोगे। सप्तर्षि आदि तुम्हारे आसपास भ्रमण करेंगे। महाप्रलय भी तुम्हें नहीं छू पायेगी। ऐसे सर्वश्रेष्ठ पद को प्राप्त कर तुम सौभाग्यदाता बनोगे।
भगवान विष्णु से वरदान पाकर ध्रुव वापस लौटा और मात्र छह वर्ष की आयु में अपने पिता का सिंहासन पाकर दशकों तक न्यायपूर्ण शासन कर अंत में वरदान के अनुसार आकाश में स्थित होकर पथिकों का पथप्रदर्शक और सौभाग्यदाता बनने का परमपद प्राप्त किया।
6. वाल्मीकि आश्रम (Valmiki Ashram Bithoor)
मान्यता है कि महर्षि वाल्मीकि के इसी आश्रम में देवी सीता ने अपने जुड़वाँ बच्चों लव और कुश दिया था। वैसे प्रायः सभी वाल्मीकि आश्रमों में लवकुश के जन्म से सम्बंधित मान्यता जुड़ी होती है। लेकिन इस स्थान से जुड़ी एक ख़ास बात है जो इसे विशेष बनाती है। जो शायद आप नहीं जानते। तो आज के इस वीडियो में हम जानेंगे कि इस स्थान की वास्तविक महिमा क्या है ? लेकिन पहले इस आश्रम के दर्शन करते हैं।
आश्रम के बाहर लगे पर्यटन मंत्रालय के बोर्ड से ज्ञात होता है कि इस स्थान का जीर्णोद्धार बिठूर के शासक पेशवा बाजीराव द्वितीय ने 19 वीं सदी के पूर्वार्ध में यानी 1818 में बिठूर में आने से लेकर 1850 के बीच किसी समय में कराया था। यानी ये जो आप इमारत देख रहे हैं ये भले ही केवल दो सौ वर्ष पुरानी हो लेकिन यहाँ की असली महिमा इस इमारत की नहीं बल्कि इस पावन स्थान की है इस धरती और इस मिट्टी की है जहाँ महर्षि वाल्मीकि अपनी कुटी में निवास करते थे।
आश्रम में प्रवेश करने पर बाईं ओर पानी का एक फव्वारा है जहाँ अश्व और हनुमानजी को बंदी बनाये हुए लव कुश की प्रतिमाएं हैं।
वाल्मीकि आश्रम के तीन मंदिरों में पहला मंदिर है वाल्मीकि मंदिर। जहाँ विराजमान प्राचीन शिवलिंग, हरिहर और महर्षि वाल्मीकि की प्रतिमाएं दर्शनीय हैं। जिस स्थान पर ये मंदिर बना है मान्यता है कि इसी स्थान पर महर्षि वाल्मीकि ने रामायण की रचना की थी।
महर्षि वाल्मीकि के मंदिर के पास ही स्थित है वनदेवी कुटी। निर्वासन काल में जब देवी सीता महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में रहती थी तब उन्हें वनदेवी ही कहा जाता था। उन्हीं को समर्पित ये स्थान है। यहीं स्थित जानकी मंदिर में सीताजी की प्राचीन प्रतिमा विराजमान है इसी मंदिर के पास महर्षि वाल्मीकि की अन्य प्राचीन प्रतिमा स्थापित है। और इन्हीं के पास है यहाँ का सीताकुण्ड। जिसे कई लोग सीता समाहित स्थल मानकर भ्रमित हो जाते हैं। यहाँ भारत सरकार के पर्यटन मंत्रालय ने भी इसे केवल छोटा तालाब और सीताकुंड ही लिखा है। सीता समाहित स्थल से जुड़े शास्त्रीय तथ्यों को हम जानेंगे अगले वीडियो में जो सीतामढ़ी के वीडियो पर पूछे गए आपके प्रश्नों पर ही आधारित होगा। लेकिन बिठूर के इस स्थान के बारे में ये संभव है कि सीताजी अपने पुत्रों लव और कुश के साथ यहाँ रही हों। जिसकी विस्तार से महिमा हम अभी जानेंगे। पहले देखते हैं दीपमालिका स्तम्भ।
सीताकुंड के पास ही स्थित है दीपमालिका स्तम्भ जिसके तल को सीतारसोई कहा जाता है जिसमे रसोई में प्रयोग किये जाने वाले कुछ प्राचीन बर्तन दर्शनीय है। यहीं एक पुराना घंटा भी लगा है।
चूँकि बिठूर 1857 के संग्राम के सेनानी तात्या टोपे का भी निवास रहा है इसलिए इस घंटे के बारे में कहा जाता है जैसा कि इस शिलापट पर लिखा है कि जब भी नानाराव साहेब तात्या टोपे को बुलवाते थे तो इस घंटे को बजाया जाता था। जिसकी ध्वनि सुनकर तात्या टोपे को पता चल जाता था कि उन्हें बुलाया जा रहा है।
यह दीपमालिका स्तम्भ यहाँ का प्रमुख आकर्षण है । जब प्राचीन समय में इसके खानों में जलते दिए रखे जाते थे तो यह कितना आकर्षक लगता होगा और इससे रात के अंधकार में दूर से ही नगर की स्थिति पता करना भी कितना आसान हो जाता होगा। कितने ही पथिकों को इस दीपमालिका स्तम्भ ने रास्ता दिखाया होगा। इसका अनुमान करना भी काफी रोचक लगता है। इसके पास ही एक प्राचीन कूप विद्यमान है और इनके पार्श्वभाग में बना लवकुश आश्रम भी दर्शनीय है।
तो अभी तक हमने जाना कि यह वर्तमान इमारत 19 वीं शताब्दी के पूर्वार्ध की है। मान्यता के अनुसार यहाँ पर महर्षि वाल्मीकि का आश्रम हुआ करता था। जहाँ संभवतः सीताजी ने लव और कुश को जन्म दिया था। अब हम जानते हैं यहाँ की वह महिमा जो बहुत कम लोग ही जानते हैं। जहाँ ये आश्रम विद्यमान है इस क्षेत्र का पुराना नाम द्वैलव है। ब्रह्मावर्त के समीप इस क्षेत्र में पहले घना वन हुआ करता था। जहाँ डाकू रत्नाकर यात्रियों को लूटकर अपने परिवार का भरण पोषण करता था। तब एक बार यहां से गुजरते हुए नारदजी रत्नाकर के चंगुल में फंस गए। नारदजी के केवल एक प्रश्न ने रत्नाकर की आँखों से मोहमाया का पर्दा हटा दिया। वह प्रश्न था कि जिस परिवार के लिए तुम ये लूटपाट करते हो क्या तुम्हारा परिवार तुम्हारे इन दुष्कर्मों का फल भोगने के लिए परलोक में तुम्हारा साझेदार बनेगा। रत्नाकर ने जाकर ये प्रश्न अपने घरवालों से पूछा तो उसके घरवालों ने उत्तर दिया कि अपने परिवार का भरण पोषण करना तुम्हारी जिम्मेदारी है और इसके लिए जो तुम पाप करते हो उसके फल में हम तुम्हारे साझेदार नहीं हो सकते। वह तो तुम्हें ही भोगने होंगे। यह सुनकर रत्नाकर को आघात लगा। तब सांसारिकता से विरक्त रत्नाकर तप करने लगा और महर्षि वाल्मीकि के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
गीताप्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पत्रिका कल्याण के तीर्थांक में ये स्थान महर्षि वाल्मीकि का जन्मस्थान बताया गया है। यहीं तप कर वे रत्नाकर से महर्षि वाल्मीकि बने थे फिर यहीं अपना आश्रम बना वे यहाँ निवास करने लगे।
एक दिन महर्षि वाल्मीकि के इसी आश्रम के पास एक शिकारी ने क्रौंच पक्षी के जोड़े में से नर पक्षी को मार दिया। इस पर मादा क्रौंची विलाप करने लगी। क्रौंची के विलाप से दुखी होकर महर्षि वाल्मीकि ने शिकारी को शाप दिया –
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः । यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधीः काममोहितम् ।।
अर्थात् हे निषाद ! तुमने क्रौंच के काममोहित जोड़े में से एक को मार डाला है । इसलिए तुम अनंत वर्षों तक प्रतिष्ठा प्राप्त न कर सकोगे।
उसी समय नारद मुनि वहां प्रकट हो गए। वे महर्षि से बोले – अब तक ऋषिगण वैदिक भाषा में ही मंत्रों की रचना करते थे। आपने सर्वप्रथम लौकिक संस्कृत भाषा में श्लोक की रचना की है। इसलिए हे महर्षि आप संसार में आदिकवि कहलाओगे। अब आप इसी लौकिक संस्कृत भाषा में भगवान् राम की महिमा और लीलाओं का वर्णन करो।
तब महर्षि वाल्मीकि ने इसी स्थान पर रामायण की रचना करने की शुरुआत की। जिसे वाल्मीकीय रामायण कहा जाता है। दोस्तों इस विषय पर आप अपने विचार या सुझाव कमेंट बॉक्स में दे सकते हैं।