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यह जानकर एक बार शायद आपको आश्चर्य हो या अजीब लगे परन्तु यह कोरी कल्पना मात्र नहीं है, ना ही ये हवा में कही जा रही बात है, बल्कि प्रमाणित सत्य है। यहूदी धर्म में व्याप्त कर्मकांड आदि से उकताकर तथा बौद्ध धर्म पर आकृष्ट होकर ज्ञान की तलाश में ईसा मसीह भारत आये थे और यहाँ घूमकर इसी देवभूमि में उन्होंने ज्ञान प्राप्त किया था तथा यहीं से प्राप्त ज्ञान को उन्होंने पवित्र बाइबिल में कहा है। ईसा मसीह ने जो ज्ञान बाइबिल में कहा है वह उन्हें बौद्ध धर्म से प्राप्त हुआ है। माने, बाइबिल के जरिये ईसाई धर्म पर भारत की छाप है।
यह सवाल तो सभी के मन में उठता है कि ईसाई धर्म का जन्म हुए अभी मात्र 2017 वर्ष हुए हैं तो इससे पहले धर्म की क्या स्थिति थी। ईसाई धर्म का जन्म कैसे और किससे हुआ। इसलिए सबसे पहले हम ईसाई धर्म की उत्पत्ति के बारे में जानेंगे।
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ईसाई धर्म का जन्म –
संसार के सभी धर्मों में सबसे प्राचीन धर्म तीन ही हैं। 1. हिन्दू धर्म 2.पारसी / ज़रथुस्त्र धर्म (पारसी धर्म के प्रस्थापक महात्मा जरथुस्त्र थे इसलिए इसे ज़रथुस्त्री धर्म भी कहा जाता है। ) तथा 3. यहूदी धर्म। इनमें हिन्दू तथा पारसी आर्यों के बीच उत्पन्न हुए तथा यहूदी धर्म ‘सामी’ जाति के बीच उत्पन्न हुआ। तीसरे प्राचीन धर्म, यहूदी धर्म से ईसाई तथा इस्लाम धर्म का जन्म हुआ। यहूदी धर्म का इतिहास लगभग 4000 साल पुराना है।
खास बात यह है कि जिस तरह प्राचीन वैदिक धर्म से बौद्ध धर्म का जन्म हुआ उसी प्रकार यहूदी धर्म से ईसाई धर्म का जन्म हुआ। दूसरी खास बात यह है कि भारत में पिता (वैदिक धर्म) ने पुत्र (बौद्ध धर्म) को भारत से निर्वासित कर दिया, लेकिन फिलिस्तीन में पुत्र (ईसाई धर्म) ने पिता (यहूदी धर्म) को अपदस्थ कर दिया।
वैदिक धर्म तथा यहूदी धर्म में समानता –
वैदिक धर्म के समान ही यहूदी धर्म भी यज्ञमय तथा प्रवृत्ति प्रधान है। जिस प्रकार वैदिक धर्म में मूर्तिपूजा नहीं है तथा यज्ञों की प्रधानता है उसी प्रकार यहूदी लोग भी मूर्तिपूजक नहीं है। यहूदी धर्म का मुख्य आचार यह है कि अग्नि में पशु या अन्य वस्तुओं का हवन करे तथा ईश्वर के बतलाये गए नियमों का पालन करे।
ध्यान दें – हिन्दू धर्म के प्राचीन वैदिक धर्म में मूर्तिपूजा का विधान नहीं है। भारत में मूर्तिपूजा इत्यादि पौराणिक काल से प्रारम्भ हुई है। अर्थात् हिन्दू धर्म के मूल में यज्ञों का ही विधान है, मूर्तिपूजा का नहीं।
वेदों के मूलतः दो भाग हैं – 1. कर्मकाण्ड 2. ज्ञानकाण्ड। वेदों का सर्वश्रेष्ठ भाग ज्ञानकाण्ड के अंतर्गत ‘उपनिषद’ है, जिनमें ज्ञान का अथाह भण्डार है। यह सभी जानते हैं कि श्रीमद्भगवद्गीता को सत्यज्ञान प्राप्त करने के लिए विश्वभर में पढ़ा जाता है, असल में वह गीता ‘उपनिषदों’ का ही सार है। अर्थात भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उपनिषदों का ही सार सुनाकर ज्ञान दिया था जिसका ‘गीता’ नाम प्रसिद्ध हुआ। इससे उपनिषदों में विद्यमान ज्ञान की कल्पना की जा सकती है । उपनिषदों के इसी ज्ञान मार्ग से बौद्ध धर्म का उदय हुआ। इसी प्रकार ईसाई धर्म भी यहूदी धर्म का सुधरा हुआ रूप है। ईसा से लगभग 600 वर्ष पहले ही बौद्ध धर्म जन्म ले चुका था। वेदों में ज्ञानमार्ग के लिए विद्यमान उपनिषदों के समान यहूदी धर्म में कोई ज्ञानमार्ग नहीं था। यहूदी चिंतक केवल कर्मकांडों से उकता चुके थे। उन्हें ज्ञान की तलाश थी। इस समय भारत में उपनिषदों के ज्ञानमार्ग से उदित बौद्ध धर्म अपने ज्ञान के कारण विश्वभर में प्रसिद्धि पा रहा था।
यहूदी धर्म में ईसाई धर्म का बीज –
किसी भी धर्म में से कोई सिद्धान्त अचानक नहीं निकलता, किसी भी नए सिद्धान्त की कोई न कोई पृष्ठभूमि अवश्य होती है। जैसे वैदिक धर्म से बौद्ध धर्म सीधे नहीं निकला। सर्वप्रथम उपनिषदों के रूप में ज्ञान का प्रसार हुआ तब उस ज्ञान के मार्ग से बौद्ध धर्म का उदय हुआ उसी प्रकार यहूदी धर्म से भी ईसाई धर्म सीधे नहीं निकला। बौद्ध धर्म की उत्पत्ति के लगभग चार सौ वर्ष बाद तथा ईसा से लगभग दो सौ वर्ष पहले यहूदी धर्म में एसीन नामक सन्यासियों का एक पंथ आविर्भूत हुआ। इस पंथ पर बौद्ध धर्म का सीधा प्रभाव था क्योंकि उस समय तक प्रचलित पशु बलि के समान हिंसात्मक धार्मिक कर्मकांडों के विपरीत बौद्ध धर्म अपने अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अष्टांगिक मार्ग, निर्वाण आदि सिद्धांतों के कारण विश्वभर में चर्चित हो रहा था, और आध्यात्मिक ज्ञान के लिए सभी ज्ञानपिपासुओं के लिए यह अमृत के समान था। एसीन सन्यासी हिंसात्मक यज्ञ-भाग को छोड़कर अपना समय किसी शांत स्थान पर बैठकर ईश्वर-चिंतन में बिताते थे। ये मद्य-मांस से परहेज रखते थे, हिंसा का विरोध करते थे तथा संघ के साथ मठ में ही रहते थे। पाश्चात्य पंडितों के अनुसार सन्यास की यह प्रेरणा यहूदी धर्म में पिथेगोरस के अनुयायियों की देन रही होगी। किन्तु यह अधूरा समाधान है। यह सच है कि पिथेगोरस पर भारतीय विचारधारा का बहुत प्रभाव पड़ा था किन्तु ईसाई धर्म और बौद्ध धर्म में समानता इतनी अधिक है कि उसे बौद्ध धर्म का सीधा प्रभाव माने बिना नहीं चल सकता।
ईसाई धर्म तथा बौद्ध धर्म में समानता –
- सिद्धान्त व व्यवहार – जीवों पर दया, अहिंसा, पाप से घृणा और पापी से प्रेम, करुणा का व्यवहार, सन्यास, साधुओं का मठों में रहना और लम्बा झूल पहनना ये सारी ऐसी बातें हैं जिनका प्रचलन जैन और बौद्ध साधुओं ने किया था। इन्हीं सिद्धांतों को ईसाई धर्म ने अपनाया।
- ईसा और बुद्ध के जीवन में समानता – ईसा और बुद्ध के जीवन में भी विलक्षण समानता है। बुद्धत्व प्राप्ति के पूर्व बुद्ध को कई प्रकार की चढ़ाइयों व मार का सामना करना पड़ा था और ईसा को भी शैतान ने लुभाने के अनेक प्रयत्न किये थे। ईसा ने सिद्धि-प्राप्ति के पहले चालीस दिनों का उपवास किया था। बुद्ध ने नैरंजना नदी के तट पर सुजाता के हाथों से खीर खाने के दिन से लेकर बुद्धत्व प्राप्ति तक के 49 दिनों तक कोई आहार नहीं लिया था। बुद्ध ने अंगुलिमाल डाकू का उद्धार किया तथा वेश्या अम्बपाली को सन्यासिनी बनाया। इसी प्रकार ईसा द्वारा भी शरण में आये चोरों और वेश्याओं के उद्धार की कथा कही जाती है।
‘स्वस्तिक चिह्न’ ही ईसाईयों का क्रॉस है –
जी हाँ। ईसाईयों में पूजनीय क्रॉस का निशान शूली नहीं, बल्कि स्वस्तिक है। कोई भी समुदाय अपने इष्ट की मृत्यु के कारण को अपना पूजनीय धर्म-चिह्न नहीं बना सकता। प्रसिद्ध कवि व निबंधकार रामधारी सिंह दिनकर के शब्दों में “जिस क्रॉस को ईसाई लोग शूली का चिह्न जानकर धर्म-भाव से ग्रहण करते हैं, वह स्वस्तिक चिह्न के सिवा और कुछ नहीं है। वैदिक तथा बौद्ध धर्म वाले भारतीय, ईसा के सैंकड़ों वर्ष पूर्व से ही स्वस्तिक-चिह्न को पवित्र और शुभदायक मानते आये थे। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि स्वस्तिक का प्रचार सभी देशौं में ईसा के पहले से ही रहा हो। फिर वही चिह्न ईसाई धर्म का चिह्न हो गया। “
ईसाई धर्म का जन्म व विकास बुद्ध के सिद्धान्तों की दिशा में हुआ है। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि यह प्रमाणित हो चुका है कि जिस क्षेत्र में ईसाई धर्म का उदय हुआ वहाँ ईसा के बहुत पहले से ही बौद्ध साधुओं का आना-जाना था।
ईसा मसीह का भारत में आगमन –
सम्भव है कि यहूदियों के एसीन सन्यासियों में व्याप्त बौद्ध सिद्धांतों अथवा उस क्षेत्र में आने-जाने वाले बौद्ध साधुओं के संसर्ग से ईसा का ध्यान भारत की ओर आकृष्ट हुआ और वह अधिकाधिक ज्ञान की तलाश में बौद्ध धर्म की जन्मभूमि भारत में आये।
बाल गंगाधर तिलक ने अपनी प्रसिद्ध रचना ‘गीता रहस्य’ के परिशिष्ट-भाग, 7 में लिखा है कि –
“नेपाल के एक बौद्ध मठ के ग्रन्थ में यह स्पष्ट वर्णन है कि उस समय ईसा हिंदुस्तान में आया था और वहां उसे बौद्ध धर्म का ज्ञान हुआ। यह ग्रन्थ निकोलस नोटोविश नाम के एक रूसी के हाथ लग गया था। उसने फ्रेंच भाषा में उसका अनुवाद सन् 1894 ई. में प्रकाशित किया है।”
इस बारे में स्वामी विवेकानन्द ने कहा है कि –
“There was a book written a year or two ago by a Russian gentleman, who claimed to have found out a very curious life of Jesus Christ, and in one part of the book he says that Christ went to the temple of Jagannath to study with the Brahmins, but became disgusted with their exclusiveness and their idols, and so he went to the Lamas of Tibet instead, became perfect, and went home.”
– Swami Vivekananda
इस वाक्य में स्वामी विवेकानंद ने एक रशियन (रूस के) विद्वान् का जिक्र किया है जिसने अपनी पुस्तक के एक भाग में लिखा है कि ईसामसीह (Jesus Christ) ब्राह्मणों के साथ अध्ययन करने के लिए जगन्नाथ मन्दिर गया था, लेकिन वह ब्राह्मणों की विशिष्टताओं व Idols से निराश हो गया। तब वह बौद्ध भिक्षुओं के पास तिब्बत गया और जब वह सिद्ध हो गया तब वापस अपने स्थान पर लौट गया।
इस बात में जो ब्राह्मणों के सिद्धांतों से यीशु की निराशा की बात कही गयी है, स्वामी विवेकानंद ने आगे उसका खंडन किया है-
” To any man who knows anything about Indian history, that very statement proves that the whole thing was a fraud, because the temple of Jagannath is an old Buddhist temple. We took this and others over and re-Hinduised them. We shall have to do many things like that yet. That is Jagannath, and there was not one Brahmin there then and yet we are told that Jesus Christ came to study with the Brahmins there. So says our great Russian archaeologist.”
-Swami Vivekananda
स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि Russian विद्वान् ने जिस जगन्नाथ मंदिर का उल्लेख किया है वह उस समय एक बौद्ध मंदिर था जिसे बाद में फिर से हिन्दूमंदिर बनाया गया। जिस समय ईसा मसीह के आने की बात है तब उस मंदिर में बौद्ध भिक्षुओं का निवास था,वहां एक भी ब्राह्मण नहीं था।
इसलिए संभव है कि उस बौद्ध मंदिर में बौद्ध भिक्षुओं से ज्ञानार्जन करने के बाद ईसा अधिक ज्ञान के लिए तिब्बत गए हों और वहां से बौद्ध धर्म का सम्पूर्ण ज्ञान लेने के बाद वे अपने स्थान पर लौट गए। अथवा रशियन विद्वान् की बात को भी अगर लेकर चलें तो ईसा जिस यहूदी धर्म से थे वह यहूदी धर्म भी वैदिक धर्म की तरह कर्मकांडों से व्याप्त था। इसलिए ईसा कर्मकांड से इतर जिस ज्ञान मार्ग की तलाश में थे भारत में वह उन्हें वैदिक धर्म की ही संतान बौद्ध धर्म में दिखा। आपको बता दें कि बौद्ध धर्म का जन्म वैदिक धर्म से निकले ज्ञान के सार, कर्मकांड रहित “उपनिषदों” के मार्ग से ही हुआ है। अर्थात बौद्ध धर्म, वैदिक धर्म का ही पुत्र है। रशियन विद्वान् व स्वामी विवेकानंद के कथनों से इतना तो तय है कि ईसा को ज्ञान भारत में बौद्ध धर्म के मार्ग पर हुआ था। ईसा मसीह ने बौद्ध धर्म से प्राप्त इस ज्ञान को ‘बाइबिल’ रूप दिया।
स्वामी विवेकानन्द ने अपने भाषण में कहा था कि “लोग अक्सर यह भूल जाते हैं कि ईसा एशियाई थे। वे चित्रों में ईसा की आँखें नीली और बाल पीले दिखलाते हैं। किन्तु, इससे कुछ आता-जाता नहीं। ईसा तो फिर से एशियाई ही हैं, बाइबिल में जो उपमाएँ हैं, जो चित्र हैं, जो दृश्य, प्रवृत्ति, काव्य और प्रतीक हैं, वे एशिया के हैं, पूर्वी विश्व के हैं। बाइबिल का आकाश चमकीला है, उसके वातावरण में गर्मी है, उसके भीतर मरू प्रदेश का सूर्य है, उसके भीतर प्यासा आदमी और पिपासित जीव हैं। बाइबिल में उन कूपों का उल्लेख है, जिनसे पानी लेने को नर और नारियाँ दूर गाँवों से आते हैं – ये सारे दृश्य एशिया के हैं, यूरोप के नहीं। “
भारत भारती में लिखा है –
था शिष्य ईसा हिन्दुओं का यह पता भी है चला।
ईसाईयों का धर्म भी है बौद्ध सांचे में ढला।
Tumlogo ko elevation mein research karni chahiye kyunki jaan lo ki yeshu masih tab se hai jab ye duniya bhi nahi thi
Aur tumlogo ko lagta hai ki koi gyan prapt karne aaye the wo yahan
Unhe sab kuch pehle se hi pata hai
Yahan tak ki tumhare baalo ki ginti bhi
Sahi likha hai jo Murkh hai wo murkh hi rah jayenge
Keval budhiman in baato ko samajh sakenge