दूर तक पसरे घास के मैदानों में दौड़ते और ऊँची छलांगें मारते कृष्णमृगों Blackbucks (काले हिरण) और सुनहरी हिरणियों को देखना कितना मनभावन होता है, यह जानने के लिए आपको इसका प्रत्यक्ष अनुभव करना होगा; और यह अनुभूति आपको हो सकती है केवल राजस्थान के ताल छापर कृष्ण मृग अभयारण्य में। आज मैं आपको ले चलता हूँ इस रोचक यात्रा पर; जहाँ आपका मन भी इन हिरणों के साथ दौड़ लगाता है और उन नन्हे गुलाबी खरगोशों की तरह हर पल फुदकता है जो आपकी नजदीकी का एहसास होते ही ऊँची घासों के बीच लुप्त हो जाते हैं।
यात्रा का प्रारम्भ
ताल छापर अभयारण्य राजस्थान में चूरू जिले की सुजानगढ़ तहसील में छापर नामक गाँव में स्थित है। राजधानी जयपुर से यह लगभग 215 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। अपने गृहनगर सीकर से मैं अपने बड़े भाई के साथ इस यात्रा पर निकला। सीकर से इसकी दूरी लगभग 100 किलोमीटर है। जयपुर से सीकर तक 4 लेन्स की हाईवे और सीकर से छापर तक भी अच्छा हाईवे है जिससे आवागमन में काफी सुगमता रहती है। ताल छापर आते समय रास्ते में सालासर बालाजी का प्रसिद्ध मन्दिर में हमने बालाजी के दर्शन किये। यों तो सालासर से आगे सीधा सुजानगढ़ होते हुए तालछापर का मार्ग है परन्तु यहाँ से लगभग 15 किलोमीटर दूर शेखावाटी अंचल और बीकानेर जिले में पूजित मालासी भैरव का मन्दिर स्थित है। यहाँ भैरव जी के दर्शन कर हम छापर पहुंचे। यहाँ कृष्ण मृग अभयारण्य में प्रवेश करते ही सामने अभयारण्य का ऑफिस व निवास की इमारत है। यहाँ आने वाले पर्यटकों के लिए ठहरने की भी अच्छी व्यवस्था है।
यहाँ प्रति पर्यटक 50 रूपये तथा गाड़ी के 200 रूपये की Ticket है। अपनी Tickets लेकर हमने अभयारण्य में प्रवेश किया तो एक हिरणी हमारी गाड़ी के करीब आ गई। हमें गाड़ी बिल्कुल धीमी गति में चलाने का निर्देश दिया गया था। यहाँ कभी भी कोई मृग, खरगोश आदि जीव लम्बी घास में से निकलकर आपकी गाड़ी के सामने आ सकते हैं; इसलिये अपने वाहन को धीमा ही चलाना चाहिये।
ताल छापर अभयारण्य – परिचय
जिला मुख्यालय (चूरू) से 90 किलोमीटर एशिया के सुप्रसिद्ध काले हरिणों का अभयारण्य ताल छापर में स्थित है। बीकानेर महाराजा गंगासिंह के समय यह अभयारण्य दो हजार हैक्टयर में फैला हुआ था। वर्तमान में यह 722 हैक्टयर में फैला हुआ है। यह अभयारण्य बहुतेरी संख्या में निवास करने वाले कृष्ण मृग Blackbucks, खरगोश, लोमड़ियाँ, नीलगाय, बिलाव आदि जीवों का घर है। इस अभयारण्य में लगभग 127 प्रजातियों के पक्षी आते हैं, जिनमें चीन, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, साइबेरिया आदि देशों के पक्षी सम्मिलित हैं। कुरजां Demoiselle crane तथा Bar Headed Goose (एक प्रकार की बतख जिसके सिर पर रेखाएं होती हैं) भी बड़ी संख्या में देखा जा सकता है। यहाँ एक खारे पानी की झील भी है जिससे नमक प्राप्त किया जाता है।
ताल छापर अभयारण्य में भ्रमण
हम गाड़ी से उतरकर पैदल घूम-घूमकर जीवों को देखने लगे। फरवरी माह की ठण्डक ने यहाँ की घास को सुखाकर सफेद कर दिया था। यहाँ तेज दौड़ते, ऊँची छलांगे भरते हरिणों को देखना एक अद्भुत अनुभव है। जब ये दौड़ते हैं तो इनके पाँव भूमि पर टिकते प्रतीत नहीं होते। पिछले पांवों को अपने आगे वाले पांवों से भी आगे लाकर जब ये ऊँची छलांग लगाते हैं तो लगता है मानों उड़ान ही भरेंगे। बीच बीच में गुलाबी रंग के खरगोश हमारे सामने आते रहे और हमें देखते ही दूर भागते रहे।
नीलगाय Blue Bulls
कुछ ही दूरी पर नीलगायों Blue Bulls का एक झुण्ड वृक्षों के पत्तों से अपनी भूख शान्त कर रहा था। नीलगाय भी मृग की ही एक प्रजाति है। ये एशिया के सबसे बड़े मृग हैं। इनकी टांगें पतली व मजबूत होती हैं। इन्हें कम झाड़ियों और पेड़ों वाले मैदानी क्षेत्र पसंद हैं। ये शाकाहारी होते हैं तथा घास और जड़ी बूटियों को खाना पसंद करते हैं, हालांकि वे आमतौर पर भारत के सूखे उष्णकटिबंधीय जंगलों में वुडी पौधों को खाते हैं। इनकी आयु लगभग 10 वर्ष तक होती है। वैदिक काल से ये भारतीय संस्कृति का हिस्सा रहे हैं। हिन्दू धर्म में इन्हें पवित्र माना गया है तथा इनको गौमाता से सम्बद्ध किया गया है। मुग़लकाल में इनका शिकार किया जाता था।
कृष्ण मृग Blackbucks
यहाँ हर जगह झुण्डों में भागते और घास खाते कृष्ण मृगों को देखा जा सकता है। कृष्ण मृग को भारतीय मृग के रूप में जाना जाता है। यह भारत, पाकिस्तान तथा नेपाल में पाया जाता है। इनके लम्बे घुमावदार सींग इनकी विशेषता है। ये सींग आम तौर पर केवल नर मृगों में ही होते हैं। कृष्णमृग घास के मैदानों और वन क्षेत्रों में पाए जाते है। पानी की अपनी नियमित आवश्यकता के कारण वे ऐसे क्षेत्रों को पसंद करते हैं, जहां पानी हमेशा उपलब्ध रहता है।
Tal Chhapar Video
कुरजां Demoiselle Cranes
यह स्थान जितना कृष्ण मृगों के लिए प्रसिद्ध है उतना ही कुरजां पक्षियों को देखने के लिए भी प्रमुख स्थानों में एक है। ये विशालकाय पक्षी अपनी उपस्थिति से इस अभयारण्य को और भी अधिक दर्शनीय बनाते हैं। कुरजां रेगिस्तान क्षेत्रों और घास के मैदानों जो अक्सर नदियों या झीलों से कुछ सौ मीटर की दूरी के भीतर हों, में निवास करते हैं। इन्हें कूंज भी कहा जाता है। भारतीय साहित्य व कविताओं में इसे विशेष स्थान दिया जाता है। इस पक्षी का लम्बा व पतला आकार इतना मनभावन है कि सुन्दर स्त्रियों की इससे तुलना की जाती है।
रामायण के रचयिता वाल्मीकि की पहली कविता कुरजां / कूंज पर आधारित है। जिसमें एक शिकारी प्रणय करते कूंज के जोड़े में नर को मार देता है। तब मादा रोती-बिलखती हुई शिकारी की निंदा करती है। इस कविता में विरह का ऐसा मार्मिक चित्रण किया गया है कि कुरजां को विरह गीतों में प्रतीक के रूप में माना जाने लगा। महर्षि वेदव्यास के महाभारत में भी इस पक्षी का उल्लेख है जिसमें युद्ध के दूसरे दिन दोनों पक्ष कुरजां को गोद Adopt लेते हैं।
सूर्यास्त होने लगा था। घूमते-घूमते हम कृष्णमृगों की कॉलोनी में पहुँचे जो इस अभयारण्य में जन्नत के समान है। इस समय अभयारण्य के सभी मृग यहाँ इकठ्ठा होते हैं और हिरणियों को रिझाने के लिए युद्धाभ्यास करते हैं और दौड़ लगाकर ऊँची छलांगें भरते हैं। हम काफी समय वहीं खड़े उन्हें निहारते रहे। अँधेरा होने लगा था और अब हमने यहाँ से प्रस्थान किया।
ताल छापर अभयारण्य के कुछ चित्र –
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Nice Sir Jay Hind
Need complete detail.