मेवाड़ के इतिहास में ‘बापा'(जिसे बप्पा, बाप्प बप्पक आदि नामों से भी पुकारा जाता है ) का बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। फिर भी, प्रामाणिक साक्ष्यों के अभाव में उनका तिथिक्रम तथा उनका जीवनवृत निर्धारित करना बहुत दुष्कर है। ख्यात लेखकों ने इनके सम्बन्ध में कई चमत्कारी तथा कल्पित घटनाएं लिखकर उनकी ऐतिहासिकता को और भी अधिक रहस्यमयी बना दिया है। कर्नल टॉड ने इन्ही के आधार पर इनका निम्नलिखित वर्णन प्रस्तुत किया है-
ईडर के गुहिलवंशी राजा नागादित्य की ह्त्या के बाद उसकी विधवा पत्नी अपने तीन वर्षीय पुत्र बप्पा को बड़नगरा (नागर) जाती की कमलावती के वंशजों के पास ले गई। कमलावती ने गोह के जीवन को बचाकर शिलादित्य के राजवंश की रक्षा की थी और तब से उसके वंशज गुहिल राजवंश के कुल पुरोहित थे। भीलों के आतंक के फलस्वरूप कमला के वंशधर ब्राह्मण बप्पा को लेकर भाण्डेर नामक दुर्ग में चले गए। इस स्थान को निरापद ना समझकर ब्राह्मण लोग बप्पा को लेकर नागदा के समीप के जंगल में स्थित पाराशर नामक स्थान में आ गए। यहां बप्पा ब्राह्मणों के पशुओं को चराने लगा।
बप्पा के बचपन के विषय में अनेक अद्भुत बातें जानने को मिलती हैं। इनमें से एक है – नागदा के सोलंकी राजा की कन्या का जंगल में खेल-खेल में बप्पा के साथ विवाह और बप्पा का भागकर पहाड़ों में शरण लेना। दूसरी है- बप्पा जिन गायों को चराता था उनमें से एक बहुत अधिक दूध देने वाली थी परन्तु संध्या के समय जब वह गाय वापस आती थी तो उसके थानों में दूध नहीं मिलता था। रहस्य जानने के लिए बप्पा का गाय के पीछे-पीछे जाना- गाय का निर्जन कन्दरा में जाना- शिवलिंग तथा उसके सामने तपस्या करने वाले हारीत ऋषि को दूध की धरा प्रदान करना- बप्पा द्वारा भक्तिभाव से हारीत ऋषि की सेवा करना। हारीत द्वारा बप्पा के लिए भगवान शिव से मेवाड़ राज्य मांगना आदि बातों का विवरण है।
इस प्रकार की अन्य कई रोमांचक घटनाएं उनके जीवन से जुड़ी हैं लेकिन एक बात निश्चित प्रतीत होती है कि बप्पा के भाग्योदय में हारीत का महत्वपूर्ण स्थान रहा। आठवीं सदी में बप्पा ने मेवाड़ क्षेत्र में एक स्वतन्त्र राजवंश की नींव रखी जो ‘गुहिल’ के नाम से विख्यात हुआ। बप्पा ने मौर्यवंशी राजा मान मोरी को परास्त कर चित्तौड़ पर अधिकार किया था। उदयपुर में स्थित एकलिंगजी का मंदिर बप्पा रावल ने बनवाया था तथा इस मंदिर के पीछे आदि वराह का मंदिर बनवाया। एकलिंगजी के मंदिर के समीप ही हारीत ऋषि का आश्रम है। 735 ई. के आसपास हज्जात ने अपनी विशाल सेना राजपूताने पर भेजी जिसे बप्पा ने पराजित कर हज्जात के मुल्क तक खदेड़ दिया। बापा की करीब 100 पत्नियां थीं, जिनमें से 35 मुस्लिम शासकों की बेटियां थीं, जिन्हें बापा के भय से इन शासकों ने उन्हें ब्याह दी थीं। ई. 738 में बप्पा ने अरब आक्रमणकारियों को परास्त किया। बापा ने सिंधु के मुहम्मद बिन कासिम तथा गजनी के शासक सलीम को परास्त किया। इन्होने अपनी राजधानी नागदा रखी।
बप्पा नाम है अथवा उपाधि ?
बप्पा नाम का कोई राजा हुआ है अथवा यह किसी राजा ने उपाधि धारण की थी – इस सम्बन्ध में इतिहासकारों में भरी विवाद है। कविराजा श्यामलदास के अनुसार “बप्पा किसी राजा का नाम नहीं, किन्तु उपाधि है।” यदि उनके इस मत को स्वीकार भी लिया जाये तो प्रश्न उठता है की यह किस राजा की उपाधि थी। करनाल टॉड के अनुसार यह ‘शील’ नामक राजा की उपाधि थी। श्यामलदास के अनुसार यह शील के पोते महेंद्र की थी। डॉ. डी. आर. भंडारकर के अनुसार यह ‘खुम्माण’ की उपाधि थी। ओझा के अनुसार यह उपाधि ‘कालभोज’ नामक राजा की थी। सभी विद्वानों ने अपने अपने पक्ष में वजनदार तर्क भी प्रस्तुत किये हैं। परन्तु सबसे अधिक तर्कसंगत ‘कालभोज’ प्रतीत होता है।
बप्पा की मृत्यु
बापा का देहांत नागदा में हुआ था। यहां उनकी समाधि स्थित है जो ‘बापा रावल’ के नाम से प्रसिद्ध है।
JY MEWAR